Tuesday, October 13, 2015

Round 1 - Team # 24 (Soumendra & Kapil)



हरिया के दो बैल, जय-वीरू उसके घर के चिराग हैं। हरिया और धानु के कोई जन्माना(संतान) तो था नहीं, इन बैलो में उनके प्राण रमेथे. खली-चोकर उनको पहले, बाद में चूल्हे जलता। पछाई जातिके बैल, ऊंचा डील-डोल, बड़े-बड़े नुकीले सींग, पठ्ठे भरे हुए, लेकिन सीधे इतने की गऊ भी झेंप जाए। हरिया खेत से निकलता तो लगता दो गबरू जवान बेटेका अक्खड़ बाप इठला रहा हो।  

नांदसे मुँह उठाकर जय बोला "मालिक, मालकिन को कह रहे थे की इस बार देखना अपनी जमीन सोना उगलेगी"
वीरू : "क्यों न हो? मालिक इस बार शहरसे अच्छे बीज लाये है, साथ ही कीड़ो की दवाई भी लाये है, पिछली बार कीड़ो ने बड़ा कहर बरपाया, रही कसर, ख़राब मौसमने कर दीथी"।

जय : "मालिक रोटी भी गिनकर खाए और हम गुड खाए, बैलों के भाग ऐसे तो नहीं देखें"।

वीरू : "किसान और बैल की किस्मत एक ही रात में लिखी जातीहैं, कौन किसका सहारा हैं मरते दम तक तय नहीं होता"

जय : "मालिक ने तो खुद अपनी किस्मत पर ताले लगा रखे है, मालिक के भाई साहब को देखो, जगनू से जगनसेठ बन बैठा हैं, दस गाँवके सरदार मिलकर भी मालदारी में टिक ना पाये। सालों पहले एक फैक्ट्री को अपनी जमीन बेच शहरमे बस गया, कपड़ों का व्यापार किया, देवयोग से परदेस तक उनके लिबास के अनुरागी बसे पड़े है"

वीरू : "जगन सेठ! दोज़ख में भी जगह ना मिले उस अधमी को; पहले बाउजी को झांसा दे कर बड़ी जमीन हथियाई, तीन-गऊ, दौ-बैल, बकरी सब हड़पी। यहाँ तक भी प्रयाशित करता तो शायद देवदूत नरक की यंत्रणाओं में पक्षपात कर लेते; पर वो छुरेबाज़ तो गाय, बैल-बकरी सबको कसाई-खाने को बेच गया"

जय: "हमारे नक्षत्र ऊँचे थे जो छोटे भाई हरिया मालिक की बाँट में आये, नहीं हमारी खाल के जूते पहन कर कोई  रस्ता नाप रहा होता। ये मालिक नहीं देवदूत हैं, आज तक छड़ नहीं उठाई, फूल की पंखुड़ी से भी खरोंच आये तो लपककर वैदको बुला लाये"

इन बैलों को तंगी के दिनोंमें नांदमें डाली गयी फ़ीकी-सूखी घास भी इस खरे वात्सल्य के साथ स्वादपूर्ण लगती हैं। हरिया के नेक दिली और जगन सेठ की दयाहीनता को बढ़ा-चढ़ा कर बताने में खोये बैलों की संकेन्द्रता को धानु की खरखरायी  टेर ने भेदा।

धानु : "पंडितजी के लड़के का टीका अचानक ही तय हो गया, अब एकाएक रुपये कहा से लाये? फ़सल कटेगी तब देंगे, ये बोल कर लिए थे। सारे पैसे बीज, खाद-पानी में लग गए, सुबह तकाज़ा कर गए, तीन दिन में देना है"

हरिया : "ऊपरवाले ने चिंता दी हैं तो दूर भी वो ही करेगा, नाहक़ ही फ़िकर कर रही हैं"

धानु : "गांव का कोई घर नहीं बचा जिसके उधार से हमारे घर रोटी नहीं सिकि हों, कहाँ से इंतेजाम हो? मैं तो कह-कह कर ठठरी होगयी की शहर चल-चलो, भाई-साहब भी कई मर्तबा बोल गए, लेकिन पता नहीं कौन खज़ाना गढ़ा हैं जो यही धूनी रमी रहती हैं"

दो दिनमें खेत की लिखा-पढ़ी हो गयी, पांच रूपये सैकड़ा सूद पर लिए कर्ज़े से पंडितजी का हिसाब किया गया। 
एक-एक कर के सारे दिवस, धानु के पाकगृह के भंडारे की तरह तेजी से खर्च हुए। हरिया की मेहनत रंग लायी, धरती ने खूब सोना उगला, मटर की फसल अच्छी हुयी हैं। 

उधर शहर से जगनसेठ का बड़ा बेटा ऋषि अपने पालतू कुत्ते डुग्गु के साथ हर वर्षकी भाँति छुट्टियाँ बिताने अपने हरिया चाचा के घर आया। ऋषि को प्रकृति का सानिध्य बहुत पसंदहैं। शहर की चिल्ल्पों से दूर प्राणवायु से पूर्ण निर्वात में बसेरा उसे बड़ा भाता हैं। 

डुग्गु : "इतनी तेज गर्मी, मच्छर चैन नहीं ले रहे, बगल में किसीने खेंत सींचा हैं, यंहा तक कीचड़ आ रहा हैं, वहाँ एसी में पेडिग्री खाने को मिलता है, सोने को नरम-नरम बिस्तरहैं, मालकिन हफ्ते में एक बार शैम्पू से नहलातीहैं, बालों में कंघी करतीहैं और यंहाके कुत्तोके शरीर जूओंसे भरेहैं। छोटे मालिक (ऋषि) सेठजी (जगनसेठ) को कह रहेथे की में तो डुग्गु के साथ वहीँ गाँवमें बस जाऊंगा, अजीब ख़ब्ती हैं"

वीरू : "इतने नख़रे तो शहर की लड़कियों के नहीं होते, हाहाहा..."

सुबह हरिया बैलगाडी ले टिटकारी भरते हुए खेतके मटर को लेने चला, मटरके दाम भी बढे हुए हैं, "इस बार सारा कर्ज़ा चुकाकर, खेत छुड़ाऊंगा, बैलोके लिए पक्का अस्तबल बनवाऊंगा, धानु को भी नए कपड़े-चूड़ी दिलाऊंगा फिर पूरे सालकी रसद भंडारेमें रखवा दूंगा"

सहसा मौसम ने करवट ली, पूरा आसमान गाढ़ा हो गया, हरिया का दिल बैठ गया। भारी ओलावृष्टि हुयी, देखते ही देखते खेतों का सोना पिघलकर कही लुप्त होगया।  हरिया को लगा जैसे उसके आखों के सामने कोई उसके बच्चे पर छुरी चला रहाहो।  

घर पर धानु ज़र्द पड़ीथी, हरिया के चेहरे का पक्का रंग वेदना की परकाष्ठा से और मलिन होगया। जय-वीरू टकटकी लगाए शुन्य में विलुप्त जान पड़तेथे, रो-रो कर पथरा  गयी आँखों और घुटे हुए गले के विसादपूर्ण गुटबंदी से धानु ने आह ली, "खेतभी गया, गाँवमें कुछ रहा नहीं, ऋषि के साथ शहर चलतेहैं"

हरिया : "मेरेबैल, मेरेबच्चे हैं, इन्हे यहाँ ऐसे-कैसे अकेला छोड़ जाउ"
धनुः "इन्हे बेच देतेहै" 
हरिया: "इन बे-जुबानो को कोई चाबुक दिखाए, नकेल डाले, सोच कर ही ह्रदय उठ जाताहैं" 
धानु : "इन्हे भी ले चलो"
हरिया : "आधीसे ज्यादा उम्र गाँव की मिट्टीमें लोटकर निकालीहैं, शहरमें खूंटे पर बाँध कर मुझे इन्हे मारना नहींहैं"

ऋषि : "शहरमें रखा क्या हैं? कर्कश कानफाड़ू शोर, चौबीसों घंटे कोल्हूके बैलकी तरह दौड़ने वाले मशीनी आदमी, थोड़ी दिखावट, थोड़ी मिलावट और फिर उस पर छिड़की हुयी थोड़ी सजावट, यहाँ गाँवमें फुर्सत हैं बेफिक्री, निर्दोषता हैं।

उधर जय ये बाते सुन डुग्गु और वीरू से बोला, "भूखहैं, बेबसी भीहैं यहाँ, पेट भरा होतो फूलो से खुशबू आती हैं, सूरजसे पहले छत होतो घुटन नहीं सुकूं मिलताहैं। अगर ऋषि यहीं रहता हैंतो सालो बाद जब कभी अपनी बेटी पराई करेगा तो शहर का घरही ढूंढेगा, बिटिया को गाँव में कभी नहीं देगा, और बेटों को शहर बसाएगा, उनसे कहेगा, हमने तो अपनी ज़िंदगी अभावो में काट ली, बस तुम्हारी संवर जाएं" 

हरिया: "शहरमें भी जाना चाहता हु, लेकिन जब जय-वीरू का ख्याल आताहैं लगताहैं की किसीने दोनों पैरो में सौ-सौ किलो के पत्थर बांध दिए"

दोनों बैल भावपूर्ण सजल नेत्रों से मालिक की बातों का रस्वादन कर रहेथे की डुग्गुने बीचमें खलल डाला, "शहरमें किसी चीज़ की कमी नहींहैं, ये चाहिए फ़ोन घुमाओ, वहाँ जाना हैं गाडी उठाओं, हर बीमारीका इलाजहैं वहांके अस्पतालोंमें, पता नहीं छोटे मालिक की बुद्धिमें सेंध लग गयी क्या? कहतेहैं गाँव का जीवन  सच्चाहैं, न कोई फ़िक्र न कोई आगे बढ़ने का दवाब"            
  
जय : "इंसानो का तो भगवानही मालिकहै, इंसान किसीभी तरहसे खुश नहींहै, उन्नति के लिए शहर जाताहै, हर चीज़ पानेके बाद कहताहैं की वापस गाँव जानाहै क्योंकि वहां पर बहुत कुछ छूट गया। गाँवमें रहते हुए कहताहै की गाँवमें तरक्की नहीं ज़िंदगी बोझिलहैं, सुख-सुविधाये नहींहैं फिर वापस शहर भागताहैं। जो चीज़ उसे मिलती वो उसकी कद्र नहीं करता, हम जानवर मस्त हैं हर हालमें खुश रहतेहै"

डूबता सूरज को लोगों के लिए तमाशा बन जाता हैं। हरिया की कंगाली उसकी भलमानहसता से जल्दी प्रसिद्धि पागयी, साहूकारने तकादो के तीर से हरिया की प्रभुता को तार-तार कर दिया। अनंततः सूद चुकाने में विफल रहे किसान ने घर गिरवी रखवा सूदखोर से पीछा छुड़ाया।

हरिया का दीवालापन चरम पर था, मांस हड्डियों से चिपक गया, आँखे सिकुड़ कर गड्डोमें जा गिरी, मन्दभाग्य धानु उम्रमें दूनी होगयी। बैलो की ठिठरिया निकलने लगी। लेकिन अभी तक सभी ज़िंदगी जीने की ज़िद पर डटे थे।

जय : "ओलो ने बड़ा जुल्म कियाहैं। कई घर उजाड़ दिए। राघव काका ने तो पूरे परिवारको ही ज़हर देकर सारे दुःखोसे तार दिया। बंशी भी कई दिनों से लापताहैं"  
वीरू : "जय, ये कीड़े मारने वाली दवाई यहाँ किसने रखी?
जय : "पहले तो यहाँ नहींथी, हेदेव क्या चल रहा है इस घरमें?  मेरे  मालिक को दिग्भ्रमित होने से बचाये। 

डुग्गु : "भाई मेरा मालिक कंगाल हो जाता तो मैं तो भाग निकलता"

जय-वीरू ने तिरस्कार भरी नज़रोसे डुग्गु के इस कथन को दुत्कारा।  फिर विचार कियाकी क्यों न हम लोग भाग जाए, हम ही न होंगे तो मालिक अपने बड़े भाईके पास चले जाएंगे और विभीषिका से छुटकारा पाएंगे, हमारे प्रति अगाध स्नेह ने हीतो इन्हे यहाँ जकड़ा हैं।  लेकिन अगर भागे भी तो कहा? आस-पास के गाँवसे कौन हमें नहीं जानता, हरिया और उसके बैल तो यहाँ अलौकिक प्रीत का प्रतिरूप माने  जातेहैं।

सुबह हरिया पास से सूखी घास मांग लाया, बैल इतनी देर तक सो रहे हैं? हे राम! इनके मुह से झाग कैसे निकल रहा है, शरीर नीला पड़ गया, जीवनके सभी लक्षण अलोप हैं।  हरियाको लगा किसी ने अँधेरी खाई में धक्का दे दिया, चिंगाड़ के साथ शव की भाँति जमीन पे जा पड़ा। हजारो अनवरत प्रहार झेल करभी खड़ा रहने वाला हरिया, मेले में माँ-बापसे बिछुड़े बालकसा बेसुध इधर-उधर भाग रहाथा। पास खड़ा डुग्गु स्तब्ध था की मालिक के प्रति प्रणय की अति येही तो होती है? दोनों बैल इसलिए कीड़ोकी दवाई (ज़हर) चाट गए ताकि इनके मालिकको इसे खानेकी नौबत ना आये। किसान की खुदखुशी की खबरें तो आती रहतीहैं, उसकी अकाल मौत को रोकने के लिए उसके बैल अपनी ईहलीला समाप्त कर दे संभवतया पहली बार ही हुआ होगा। हरिया को अपनी जकड़ से मुक्त कर दोनों बैलों ने उसके शहर जाने का विकल्प खोल दियाथा। धन्य हैं हरिया के बैल।  

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Rating - 135/200 Points

"Hariya ke Bail" by Kapil Chandak and Soumendra Majumder

[Penalties: Word limit (Minus 8) and 2 Days Deadline (Minus 8) = Minus 16 Points]

Final Rating - 119/200 Points

Judge - Mr. Mayank Sharma

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